इकाइयों के ऐसे भौगोलिक जमाव (नगर/शहर/कुछ सटे गांव और उनसे लगते हुए क्षेत्र) को क्लस्टर (जमघट) कहते हैं, जो लगभग एक ही तरह के उत्पाद तैयार करते हैं तथा जिन्हें समान अवसरों और खतरों का सामना करना पड़ता है| हस्तशिल्प/हथकरघा उत्पादों को तैयार करने वाली पारिवारिक इकाइयों के भौगोलिक जमाव (जो अधिकांशतः गांवों/कस्बों में पाया जाता है) को आर्टिशन क्लस्टर कहते हैं| किसी क्लस्टर विशेष में, ऐसे उत्पादक प्रायः किसी खास समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, जो पीढियों से इन उत्पादों को तैयार करने के कार्य में लगे होते हैं| दरअसल, कई आर्टिशन क्लस्टर (शिल्पी जमघट) सदियों पुराने हैं| दातोनगंज का सुआ चिआंकी समूह के बारे में:- दातोनगंज का सुआ चिआंकी समूह झारखण्ड राज्य में रांची जिला के अर्न्तगत आता है. दातोनगंज का सुआ चिआंकी समूह 220 से अधिक कलाकारों तथा 22 एसएचजी आकार सहित सशक्त कार्यबल आधार प्रदान करने में सक्षम है. यह संघटन दिन प्रति दिन पहचान प्राप्त कर रहा है. हाथ से कसीदा करना:-
कशीदाकारी (सूक्ष्म कढ़ाई कार्य) जनजातीय महिलाओं द्वारा पारंपरिक, उत्सवों तथा व्यवहारिक प्रयोग के लिए विभिन्न तकनीकों का प्रयोग कर तैयार की जाती है. बलोचों तथा अन्य मध्य एशियाई जनजातियों जैसे अन्य वस्त्र समाजों की भांति अधिकतर दैनिक वस्तुएं जनजातीय लोगों द्वारा स्वयं उनके पशुधन के झुंड या उनके प्रवास क्षेत्रों में उगने वाले पौधों से एकत्रित सामग्री और रंगों की सहायता से बुनाई या कशीदाकारी की जाती थी. वस्त्र नमनशील होता था और उनकी कठिन यात्राओं के दौरान विभिन्न आकृतियों में ढाला जा सकता था और जब प्रयोग नहीं किया जा रहा हो तो समतल बांध के रखा जा सकता था. वस्त्र लकड़ी (मुक्त रूप से उपलब्ध नहीं) की अपेक्षा कम भारी होता है तथा क्ष्ति न्यूनतम होती थी. इसके अतिरिक्त, आदिवासी लोगों में एक लिखित इतिहास दुर्लभ है. संभवत: उनका कुछ सामुदायिक इतिहास उनके वस्त्रों एवं कालीनों में पाए जाने वाले डिजाईनों एवं चित्रों में अंकित है. बंजारा वस्त्रों में अधिकतर प्रारूप वर्ग या आयताकार रूपों में प्रदर्शित हैं. मानव रूपों को यदाकदा ही निर्मित किया गया है जो अन्य वस्त्र समाजों चाहे यह इस्लामिक स्रोत या अन्य किसी से हो के साथ एक अन्य विशिष्ट समानता है. बंजारा कशीदाकारी में अनेक कशीदाकारी तकनीकें देखी जा सकती हैं. इन तकनीकों में जंजीर सिलाई, आर-पार सिलाई, या शाखा सिलाई, घात सिलाई, गोटा-पट्टा, दर्पण, तथा कशीदा एवं खुली सिलाई सम्मिलित हैं, परंतु यहीं तक सीमित नहीं हैं. नृत्य एवं सामान्य उत्सवों के परिधानों में महिलाएं सामान्यतया वाणिज्यिक वस्त्रों, कृत्रिम धागों तथा स्थानीय उपलब्ध शीशे तथा धातु अलंकरणों से निर्मित पारंपरिक घाघरे, शालें तथा अंगियां प्रयुक्त करती हैं. चोलियां सामान्यत: बाजुओं पर अलंकृत होती हैं तथा सामने की ओर पूरी शीशों से अलंकृत होती हैं. विवाहित महिलाओं की चोलियों पर धातु अलंकरणों से कशीदा किए हुए फलक लगाए जाते हैं. ओढनियों में मध्य में एक चौड़ी तथा अधिक विस्तृत शीशे की कशीदाकारी सहित जो चेहरे को ढकती है कशीदा किए हुए ऊपरी एवं नीचे के किनारे होते हैं. घाघरे, जो कुल्हों से नीचे लटकते हैं कोड़ी सड़क, कौडियों की लम्बी डोर के साथ पहने जाते हैं; दोहरी सुतली या लाल रेशमी डोरी पर कार्य कर कमरबन्ध को प्राय: जोरदार कशीदाकारी से सुदृढ़ किया जाता है. विशेषकर संभावित दुल्हन के लिए सुन्दर वस्तुएं बनाई जाती हैं. संपूर्ण भारत में बंजारा महिलाएं गुंथी हुई चोटी तथा केशविन्यास धारण करती हैं जो आभूषणों तथा वस्त्रों को आधार देता है और प्रदर्शित करता है; ये शैलियां राजस्थान की विशिष्टता होती है. पारंपरिक परिधान चॉंदी के कंगनों सहित हाथीदांत या अस्थि बाजूबन्द, स्वर्ण नाक छल्ला (भूरिया), मनकों या चॉंदी के सिक्कों की मालाओं से पूर्ण होता है. बंजारों में एकमात्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण समारोह वस्त्र एक लगभग 50 से.मी. वर्ग का कशीदा किया हुआ टुकडा है जिसके अनेक उपयोग विवाह कलश आवरण या धार्मिक चौकी आवरण होते हैं. इसे विभिन्न प्रकार की भव्य कशीदाकारी दहेज पोटलियां निर्मित करने के लिए किनारों से खींचा जा सकता है.
कच्ची सामग्री:- जगह।बुनियादी रुप की जिसमें जाली बनाइ जाती है वह है खास प्रकार से बाना और आवृत धागो को खींच निकालना जिसके कारण कपडे मे वह बारीक खुला भाग बन जाये।खुलने के आकार और इस्तमाळ किये हुए टांके एक जाली से दूसरी जाली में अलग होते है।लंबी सूइ,धागा,टीकरी और बीड से कपडे पे काम किया जाता है।बडे कद की फ्रेम इस्तेमाल होती है,आम तौर से 1.5 फुट उंची,कपडा रखने के लिए के जिसके उपर स्टेन्सिल से डिजाइन बनाइ जाती है।एक हाथ कपडे के नीचे का सूइ के धागे को पकडता है जब की दूसरा सूइ को आसानी से कपडे के उपर लाता है। प्रक्रिया:- कशीदाकारी (सूक्ष्म कढ़ाई कार्य) जनजातीय महिलाओं द्वारा पारंपरिक, उत्सवों तथा व्यवहारिक प्रयोग के लिए विभिन्न तकनीकों का प्रयोग कर तैयार की जाती है. बलोचों तथा अन्य मध्य एशियाई जनजातियों जैसे अन्य वस्त्र समाजों की भांति अधिकतर दैनिक वस्तुएं जनजातीय लोगों द्वारा स्वयं उनके पशुधन के झुंड या उनके प्रवास क्षेत्रों में उगने वाले पौधों से एकत्रित सामग्री और रंगों की सहायता से बुनाई या कशीदाकारी की जाती थी. वस्त्र नमनशील होता था और उनकी कठिन यात्राओं के दौरान विभिन्न आकृतियों में ढाला जा सकता था और जब प्रयोग नहीं किया जा रहा हो तो समतल बांध के रखा जा सकता था. वस्त्र लकड़ी (मुक्त रूप से उपलब्ध नहीं) की अपेक्षा कम भारी होता है तथा क्ष्ति न्यूनतम होती थी. इसके अतिरिक्त, आदिवासी लोगों में एक लिखित इतिहास दुर्लभ है. संभवत: उनका कुछ सामुदायिक इतिहास उनके वस्त्रों एवं कालीनों में पाए जाने वाले डिजाईनों एवं चित्रों में अंकित है. बंजारा वस्त्रों में अधिकतर प्रारूप वर्ग या आयताकार रूपों में प्रदर्शित हैं. मानव रूपों को यदाकदा ही निर्मित किया गया है जो अन्य वस्त्र समाजों चाहे यह इस्लामिक स्रोत या अन्य किसी से हो के साथ एक अन्य विशिष्ट समानता है. बंजारा कशीदाकारी में अनेक कशीदाकारी तकनीकें देखी जा सकती हैं. इन तकनीकों में जंजीर सिलाई, आर-पार सिलाई, या शाखा सिलाई, घात सिलाई, गोटा-पट्टा, दर्पण, तथा कशीदा एवं खुली सिलाई सम्मिलित हैं, परंतु यहीं तक सीमित नहीं हैं. नृत्य एवं सामान्य उत्सवों के परिधानों में महिलाएं सामान्यतया वाणिज्यिक वस्त्रों, कृत्रिम धागों तथा स्थानीय उपलब्ध शीशे तथा धातु अलंकरणों से निर्मित पारंपरिक घाघरे, शालें तथा अंगियां प्रयुक्त करती हैं. चोलियां सामान्यत: बाजुओं पर अलंकृत होती हैं तथा सामने की ओर पूरी शीशों से अलंकृत होती हैं. विवाहित महिलाओं की चोलियों पर धातु अलंकरणों से कशीदा किए हुए फलक लगाए जाते हैं. ओढनियों में मध्य में एक चौड़ी तथा अधिक विस्तृत शीशे की कशीदाकारी सहित जो चेहरे को ढकती है कशीदा किए हुए ऊपरी एवं नीचे के किनारे होते हैं. घाघरे, जो कुल्हों से नीचे लटकते हैं कोड़ी सड़क, कौडियों की लम्बी डोर के साथ पहने जाते हैं; दोहरी सुतली या लाल रेशमी डोरी पर कार्य कर कमरबन्ध को प्राय: जोरदार कशीदाकारी से सुदृढ़ किया जाता है. विशेषकर संभावित दुल्हन के लिए सुन्दर वस्तुएं बनाई जाती हैं. संपूर्ण भारत में बंजारा महिलाएं गुंथी हुई चोटी तथा केशविन्यास धारण करती हैं जो आभूषणों तथा वस्त्रों को आधार देता है और प्रदर्शित करता है; ये शैलियां राजस्थान की विशिष्टता होती है. पारंपरिक परिधान चॉंदी के कंगनों सहित हाथीदांत या अस्थि बाजूबन्द, स्वर्ण नाक छल्ला (भूरिया), मनकों या चॉंदी के सिक्कों की मालाओं से पूर्ण होता है. बंजारों में एकमात्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण समारोह वस्त्र एक लगभग 50 से.मी. वर्ग का कशीदा किया हुआ टुकडा है जिसके अनेक उपयोग विवाह कलश आवरण या धार्मिक चौकी आवरण होते हैं. इसे विभिन्न प्रकार की भव्य कशीदाकारी दहेज पोटलियां निर्मित करने के लिए किनारों से खींचा जा सकता है. तकनीकियाँ:-
1. जंजीर सिलाई
2. शाखा सिलाई
3. घात सिलाई
4. गोटा-पट्टा
5. दर्पण सिलाई
6. कशीदा सिलाई
कैसे पहुँचें: - हवा से:- रॉंची पटना, दिल्ली एवं कलकत्ता सहित भारत में सभी विमानपत्तनों के साथ अच्छी तरह जुड़ा हुआ है. रॉंची विमानपत्तन हीनू में, शहर के मध्य से लगभग 7 कि.मी. दूरी पर स्थित है. कोलकात्ता निकटतम अंतर्राष्ट्रीय विमानपत्तन है. सड़क मार्ग से: - रॉंची झारखण्ड में अनेक शहरों से राज्य परिवहन निगम की बसों द्वारा भली-भांति जुड़ा हुआ है. शहर बोकारो(110 कि.मी.), चाईबासा(130 कि.मी.), धनबाद(170 कि.मी.), पटना(340 कि.मी.) एवं जमशेदपुर (140 कि.मी.) रॉची से अच्छी प्रकार जुड़े हुए हैं. ट्रेन से: - रॉंची रेलस्थल समस्त देश के प्रमुख नगरों से जुड़ा हुआ है. निकटतम स्टेशन हाटिया एक सात्रिक स्टेशन है और अनेक एक्सप्रैस ट्रेनें हटिया से आरंभ होकर रॉंची में रूकती हैं. .
कैसे पहुँचें: -
हवा से:-
रॉंची पटना, दिल्ली एवं कलकत्ता सहित भारत में सभी विमानपत्तनों के साथ अच्छी तरह जुड़ा हुआ है. रॉंची विमानपत्तन हीनू में, शहर के मध्य से लगभग 7 कि.मी. दूरी पर स्थित है. कोलकात्ता निकटतम अंतर्राष्ट्रीय विमानपत्तन है.
सड़क मार्ग से: -
रॉंची झारखण्ड में अनेक शहरों से राज्य परिवहन निगम की बसों द्वारा भली-भांति जुड़ा हुआ है. शहर बोकारो(110 कि.मी.), चाईबासा(130 कि.मी.), धनबाद(170 कि.मी.), पटना(340 कि.मी.) एवं जमशेदपुर (140 कि.मी.) रॉची से अच्छी प्रकार जुड़े हुए हैं.
ट्रेन से: -
रॉंची रेलस्थल समस्त देश के प्रमुख नगरों से जुड़ा हुआ है. निकटतम स्टेशन हाटिया एक सात्रिक स्टेशन है और अनेक एक्सप्रैस ट्रेनें हटिया से आरंभ होकर रॉंची में रूकती हैं. .