दिल्‍ली     नई दिल्‍ली     सरायकेला


इकाइयों के ऐसे भौगोलिक जमाव (नगर/शहर/कुछ सटे गांव और उनसे लगते हुए क्षेत्र) को क्लस्टर (जमघट) कहते हैं, जो लगभग एक ही तरह के उत्पाद तैयार करते हैं तथा जिन्हें समान अवसरों और खतरों का सामना करना पड़ता है| हस्तशिल्प/हथकरघा उत्पादों को तैयार करने वाली पारिवारिक इकाइयों के भौगोलिक जमाव (जो अधिकांशतः गांवों/कस्बों में पाया जाता है) को आर्टिशन क्लस्टर कहते हैं| किसी क्लस्टर विशेष में, ऐसे उत्पादक प्रायः किसी खास समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, जो पीढियों से इन उत्पादों को तैयार करने के कार्य में लगे होते हैं| दरअसल, कई आर्टिशन क्लस्टर (शिल्पी जमघट) सदियों पुराने हैं|

सरायकेला समूह के बारे में:-

सरायकेला समूह दिल्‍ली राज्‍य में नई दिल्‍ली जिला के अर्न्‍तगत आता है.

सरायकेला समूह 200 से अधिक कलाकारों तथा 15 एसएचजी आकार सहित सशक्‍त कार्यबल आधार प्रदान करने में सक्षम है. यह संघटन दिन प्रति दिन पहचान प्राप्‍त कर रहा है.

वस्‍त्र हथकरघा:-

हथकरघा वस्‍त्र बुनाई में शॉल बनाना, सूत कताई, खादी बुनाई तथा संबंधित कार्य सम्मिलित है. बुनाई धागों अथवा सामग्री की लड़ों को एक-दूसरें के ऊपर-नीचे से गुजारने की क्रिया है. बुनाई द्वारा कपड़े, कालीन, कंबल, शालें आदि निर्मित किए जाते हैं. बुनाई के लिए प्रयुक्‍त प्राकृतिक रेशे सूत, सिल्‍क तथा ऊन होते हैं. कृत्रिम रेशे जैसे नायलॉन तथा ओरलॉन भी प्रयुक्‍त किए जाते हैं.

मशीनीकरण के कारण, बुनाई आजकल मशीनों की सहायता से की जाती है. मशीनों नें उत्‍पादन में वृद्धि की है तथा तैयार उत्‍पादों की गुणवता उन्‍नत की है. परंतु भारत के कुछ राज्‍यों में हथकरघा बुनाई की परंपरागत पद्धति अभी भी प्रचलित है.

कश्‍मीर एवं कुल्‍लु के शॉल संपूर्ण विश्‍व में प्रसिद्ध हैं. शॉल शीत के विरूद्ध ऊनी सामग्री की एक रक्षात्‍मक परत होती है. कुल्‍लु एवं कश्‍मीर के शॉल अंगोरा तथा पश्‍मीना शुद्ध ऊन से तैयार किए जाते हैं. शॉलों की निभिन्‍न किस्‍में होती हैं- दोनों विपरीत दिशाओं पर किनारों (बार्डर) सहित, सभी चारों दिशाओं पर किनारे (बार्डर), वनस्‍पति नमूनों सहित शॉलें, प्राकृतिक चित्रों या फुलकारी कार्य आदि सहित शॉलें 

आजकल भारतीय कालीन की मॉंग है. ये सस्‍ते तथा सुगमता से उपलब्‍ध है. मुस्लिम शासकों ने अपने आक्रमणों के दौरान कालीन से परिचित करवाया. उनके कालीन फारसी शैली के थे तथा उन्‍हें भारतीय कालीनों की तुलना में प्राथमिकता दी जाती थी. कालीन उद्योग के फलने-फूलने के कारण, बुनकरों नें अपना ध्‍यान शॉलों से कालीनों पर स्‍थानांतरित किया.

कच्ची सामग्री:-

1. धागा

2. सूती कपडा

3. लकडे के ब्लोक

4. रंग

प्रक्रिया:-

उन को हर वसंत ऋतु मे इकठ्ठा किया जाता है और कातना हाथो से होता है।यार्न को कांतने के पहिये पे काता जाता है जिसको स्थानिक रुप से चरखा कहते है।कांतने से पहले कच्ची सामग्री की खींचाइ और उसमे कोइ धुल हो तो दूर करने के लिए सफाइ होती है और कुछ दिनो तक चावल और पानी के मिश्रणमे तरबतोर किया जाता है उसको नरम बनाने के लिए।हाथ-कताइ बहुत ही पीडाजनक और लंबा काम है।इसको बहुत ही धीरज और समर्पण की जरुरत होती है और देखने की एक अदभुत प्रक्रिया होती है।

पावर लूम्स से होते कंपनो के लिए यार्न बहुत हि कच्चे होते है इसलिए पारंपरीक 100% शोल की बुनाइ हाथ के लूम से होती है।बुनाइ करने वालो के लिए यह जरुरी होता है की उनके पास हरेक श्रेष्ठ कपडे के लिए एक समान हाथ हो।बुनाइ शटल से होती है।बुनाइ की प्रक्रिया अपने आप हि एक कला है,जिसको इक पीढी से दूसरी पीढी देती चली आती है।हेन्डलूम पे एक शोल को बुनने में करीबन 4 दिन लगते है।

डाइ भी हाथो से की जाती है और हरेक चीज को अलग से।डाइ करने वाले बडे ही धीरज से और पीढीओ के अनुभववाले वो व्यक्ति है जो शोल को डाइ करते है,इस तरह की छोटी से गलती उत्पादन की गुनवता को दिखाती है।सिर्फ धातु और एजो-म्क्त डाइ इस्तेमाल होती है,जो शोल को पूरी तरह से इको फ्रेन्डली बनाते है।डाइ करने के लिए शुध्ध पानी सतह की नीचे गहराइ से पम्प किया जाता है।डाइ उत्कलन बिंदु के थोडे हि कम तापमान पे करीबन एक घंटे तक किया जाता है।पश्र्मिनो उन पूरी तरह से अवशोषक है और सरलता से और गहराइ तक डाइ होती है।

तकनीकियाँ:-

जामदानी मे कागज पे बनाइ हुइ डिजाइन की पेटर्न को वार्प धागे के नीचे पीन किया जाता है।जैसे बुनाइ आगे चलती है ,वैसे डिजाइन कसीदाकाम की तरह बनती जाती है।जब वेफ्ट धागा फुल या अन्य आकृति की जिसे दाखिल करनी है उसके नजदीक आता है तब बुनाइ करनेवाला बांस की सूइ का एक सेट ले लेता है जो हरेक के आसपास अलग अलग रंगो का लपेटा हुआ यार्न होता है जिस तरह से डीजाइन मे जरुरत हो उस तरह से।जैसे जैसे हरेक वेफ्ट या उन का धागा वार्प मे से पसार होता है वो पेटर्न के छेदीत हिस्से को एक या दूसरे सूइ से सीता चला जाता है जैसे जरुरत हो उस तरह से और एसा चलता ही रहता है जब तक पेटर्न पूरी न हो तब तक।जब पेटर्न चलती रह्ती है और नियमित है तब निपुण बुनाइ करने वाला आम तौर से कागज की पेटर्न के साधन को निकाल देता है।

कैसे पहुचे :-

हवा से :-

लगभग सभी प्रमुख अंतर्राष्‍ट्रीय विमान सेवाओं के यहां से संचालन सहित दिल्‍ली का इंदिरा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय विमानपत्तन विश्‍व के सभी महत्त्‍वपूर्ण नगरों से जुड़ा हुआ है. पालम घरेलू हवाई अड्डे भारत में प्रमुख शहरों के लिए दिल्ली से जोड़ता है.

सड़क मार्ग से :-

दिल्‍ली राष्‍ट्रीय राजमार्गों तथा सड़कों के जाल द्वारा भारत के सभी प्रमुख नगरों से जुड़ी हुई है. तीन अंर्ताराज्‍जीय बस अड्डों (आई एस बी टी) कश्‍मीरी गेट, सराय काले खॉं तथा आनन्‍द विहार के साथ-साथ नगर में तथा आस-पास स्थित अनेक आरंभ होने वाले स्‍थानों से बसें ली जा सकती हैं, जहां से विभिन्‍न राज्‍यों द्वारा संचालित तथा निजि रूप से चलाई जा रही परिवहन सुविधाएं जैसे वातानुकूलित, डिलक्‍स, तथा सामान्‍य गाड़ि‍यां चलती हैं.

ट्रेन से :-

भारतीय रेलवे इसके आधुनिक एवं व्‍यवस्थित जाल से दिल्‍ली को भारत में सभी प्रमुख एवं गौण गन्‍तव् यों से जोड़ती है. नगर में तीन प्रमुख रेलवे स्‍टेशन नई दिल्‍ली, पुरानी दिल्‍ली तथा निजामुद्दीन हैं. भव्‍य ट्रेनें जैसे पैलेस-ऑन-व्‍हील्‍स, फेयरी क्‍वीन तथा रॉयल ओरियंट एक्‍सप्रेस नई दिल्‍ली कैंटोनमेंट रेलवे सटेशन से ली जा सकती हैं. राजधानी एक्‍सप्रेस ट्रेनें नई दिल्‍ली को राज्‍यों की राजधानियों से जोड़ती हैं. शताब्‍दी एक्‍सप्रेस ट्रेनें नई दिल्‍ली को निकटवर्ती नगरों से जोड़ती हैं.








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