उत्तर प्रदेश     अलीगढ़     अलीगढ़


इकाइयों के ऐसे भौगोलिक जमाव (नगर/शहर/कुछ सटे गांव और उनसे लगते हुए क्षेत्र) को क्लस्टर (जमघट) कहते हैं, जो लगभग एक ही तरह के उत्पाद तैयार करते हैं तथा जिन्हें समान अवसरों और खतरों का सामना करना पड़ता है| हस्तशिल्प/हथकरघा उत्पादों को तैयार करने वाली पारिवारिक इकाइयों के भौगोलिक जमाव (जो अधिकांशतः गांवों/कस्बों में पाया जाता है) को आर्टिशन क्लस्टर कहते हैं| किसी क्लस्टर विशेष में, ऐसे उत्पादक प्रायः किसी खास समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, जो पीढियों से इन उत्पादों को तैयार करने के कार्य में लगे होते हैं| दरअसल, कई आर्टिशन क्लस्टर (शिल्पी जमघट) सदियों पुराने हैं|

अलीगढ़ समूह  के बारे में:-

अलीगढ़ समूह उत्तर प्रदेश राज्य के अंतर्गत अलीगढ़ जिले में आता है.

अलीगढ़ समूह में मजबूत कार्य बल के रूप में 200  से अधिक कारीगरों एवं 8 स्वयं सहायता समूह तैयार करने की क्षमता है. आवागमन के कारण दिन-ब-दिन कार्य-बल में वृद्धि होती जा रही है.    

हाथ से कसीदा करना:-

उतरप्रदेश का लखनौ चीकन कसीदा काम के केन्द्र था और है,उसकी अनंत कृपा ,और बारीक सूक्समता के लिए प्रसिध्ध है,एक कौशल्य जो 200 साल से ज्यादा पुराना है,....शोषित व्यापारीक रुप से मगर खत्म नहि हुआ।सच मे देखे तो ,यह उद्योग जिंदा है और उसकी पहलेवाली खूबसुरती और सुंदरता मे कुछ वापस पाने के लिए लड रहा है।चीकन कसीदा काम अच्छे सुतराउ कपडे पे किया जाता  है।कपडे को पहले टांका जाता है और उसके बाद कसीदाकाम किया जाता है,जब की स्कर्ट,सारी,और टेबल के कपडे को पहले कसीदा किया जाता है उसके बाद पूरा किया जाता है।चिकन की शुरुआत का अभ्यास बताता है कि कसीदाकाम का यह रुप भारत में पर्सीया में से नूरजहां जो मुघल बादशाह जहांगीर की रानी थी  उसके साथ आया था।चीकन शब्द पर्सीया के 'चीकान" मे से उतर आया है जिसका अर्थ है सज्जा हुआ पट।उसके बावजुद कुछ लोग जोर डालते है कि यह उद्योग बंगाल से आया है। जो हम जानते है वो यह है कि चिकनकारी आउध मे आया था जब मुघल सल्तनत आउध में खत्म हो गइ थी और कारीगर आउध दरबार की और चल पडे थे,काम और सहारा पाने के लिए।

चीकन कसीदा के बारे मे जानकारी है कि उसमे करीबन 40 टांके है उसमे से 30 अभी भी इस्तेमाल किये जाते है।इनको बृहद रुप से तीन हिस्सो में बाटा जा सकता है-समतल टांके,उचे किये हुए और उपर किये हुए टांके और खुली जाली -जैसे की जाली काम । इसमे से कुछ अन्य कसीदाकाम मे इस्तमाल होते है,बाकी के दीखावा होते है जो उनको अलग ही और अनोखा बनाते है।वो देश के सभी कसीदाकामो के टांको का इस्तेमाल करते है और उनके नाम दिलचस्प और विवरण करनेवाले होते है।

प्रमुख समतल टांको का उनकी परंपरा के अनुसार नाम है:

टैपची:कपडे के दाइनी तरफ चलता टांके का काम। कंइ बार वह डीजाइन में पंखडीया और पतो को भरने के लिए समांतर कतारो क्र बीच चलता है,जिसको घासपति कहते है।कंइबार टैपची का इस्तेमाल पूरे कपडे में बेल बुटी बनाने के लिए होता है।यह सबसे आसान चीकन टांका है और कंइ बार आगे की सजावट के लिए बुनियाद का काम करता है।वह जमदानी से मिलता जुलता है और सबसे सस्ता और सबसे जल्दी बननेवाला  गिना जाता है।

पेचनी:टैपची को कंइ बार अन्य विविधताओ के लिए बुनियादी काम करने के लिए इस्तमाल किया जाता है और पैचनी उसमें से एक है।यहा टैपची को धागे से उसके उपर नियमित रुप से गूथ के ढंक दिया जाता है,लीवर स्प्रिंग जैसा प्रभाव देने के लिए और हंमेशा कपडे की दायी और किया जाता है।

पास्नी:डिजाइन की बाहरी रेखा बनाने के लिए टैपची का इस्तमाल होता है और बाद में बिल्कुल छोटे खडे साटिन टांको को उसके उपर लिया जाता है करीबन दो धागो से और बादला के अंदर अच्छे काम के लिए इस्तेमाल होता है।

बाखीया:यह सबसे आम टांका है और कंइ बार छाया काम से जाना जाता है। यह दो प्रकार के होते है:

(a) उल्टा बखीया:शॊभायान कपडे की नीचे की डिजाइन से उल्टा रहती है।पारदर्शक मुशलिन अपारदर्शक बन जाता है और प्रकाश और छाया का सुंदर प्रभाव देता है।

(b) सीधी बखिया:अलग धागो से उल्टे सीधे सेटिन टांके। धागो की शोभायान कपडॆ की उपरी सतह पे रहती है।इसका इस्तेमाल खाली जगह को भरने के लिए होता है और प्रकाश और छाया का कोइ प्रभाव नहि होता है।

खटाउ,खटावा या कटावा वह कटवर्क या सजाना है (एप्लीके) टांके से कइ ज्यादा यह तकनिक है।

गीट्टी:बटन होल और लंबे सेटिन टांको का संयोजन है आम तौर से व्हील जैसी डिजाइन बनाने के लिये इस्तेमाल किया जाता है।

जंगीरा:जंजीर टांके आम तौर से  बाहरी रेखा के रुप में पेचीनी और मोटी टैपीची रेखा के संयोजन में इस्तेमाल होता है।

बडे बडे या गाठोवाले टांको मे नीचे दिये गए मुजब संम्मिलित होता है:

बहुत ही बारीक साटीन टांका की जिसमे गांठ बनायी जाती है मोजुद बाहरी रेखा बनाये हुए टैपची टांको के उपर।

फन्डा:यह मूरी का छॊटा संक्सिप्त रुप है।गांठ गोलाकार और बहुत हु छोटी होती है,मूरी की तरह नासपति के आकार की नहि।यह कठिन टांका है और इसके लिए बहुत ही अच्छी कारीगरी जरुरी है।

जालीया:जालीया या जाली की जो चीकनकाम मे बनती है वो इस उद्योग की अनोखी खास बात है।छिद्र को सुइ की मदद से बानाया जाता है धागो को काटॆ या खींचे बीना ।कपडे के धागो को बाहर खींच लीया जाता है अच्छे नियमित छिद्र या जाली बनाने के लिए।दुसरे केन्द्रो पे जहा जाली बनाइ जाती है, वहां धागो को खींच लीया जाता है।चीकनकारी मे एसा नहि होता है।जाली तकनिकियो के नाम बताते है कि वह कोन सि जगहो से शुरु हुइ थी....मद्रासी जाली या बंगाली जाली.....या मुमकिन रुप से वह खास जाली की मांग की जगह।

कच्ची सामग्री:-

जगह।बुनियादी रुप की जिसमें जाली बनाइ जाती है वह है खास  प्रकार से बाना और आवृत धागो को खींच निकालना जिसके कारण कपडे मे वह बारीक खुला भाग बन जाये।खुलने के आकार और इस्तमाळ किये हुए टांके एक जाली से दूसरी जाली में अलग होते है।लंबी सूइ,धागा,टीकरी और बीड से कपडे पे काम किया जाता है।बडे कद की फ्रेम इस्तेमाल होती है,आम तौर से 1.5 फुट उंची,कपडा रखने के लिए के जिसके उपर स्टेन्सिल से डिजाइन बनाइ जाती है।एक हाथ कपडे के नीचे का सूइ के धागे को पकडता है जब की दूसरा सूइ को आसानी से कपडे के उपर लाता है।

प्रक्रिया:-

चीकन वस्त्र के उत्पादन की प्रक्रिया ,यह अनुमान करता है कि यह कुर्ता है,बहुत सारी प्रक्रियाओमे से निकलता है।हरेक प्रक्रिया मे अलग इन्सान सामिल होता है।आखरी जिम्मेदारी ,यु देखे तो, वह इन्सान की है जो उत्पादनकर्ता को ओर्डर देता है,आम तौर से वह विक्रेता होता है।चीकन काम कइ तबक्के होते है।कपडे को दरजी जरुरी वस्त्र के आकारमें काटता है,उसके बाद बुनियादी पूर्व-कसीदाकाम के टांके लिये जाते है,जिससे ब्लोक प्रिन्टर को डीजाइन बनाने के आयोजन की खातिर सही आकार मिले।थोडे टांके लिये हुए वस्त्र के उपर आसानी से जाने वाले रंगो से डिजाइन को प्रिन्ट कि जाती है,और उसके बाद कसीदाकाम शुरु हो जाता है।पूरा होने के बाद चीज को बहुत सावधानी से परखा जाता है क्योंकि ज्यादातर कमीया पहली नजर में ही दीखती है।युं तो.सतह की छॊटी कमिया धोने के बाद दिखाइ देती है।धुलाइ भठ्ठी मे की जाती है,जिसके बाद वस्त्र को स्टार्च और इस्त्री किया जाता है।यह पूरा चक्र खत्म होने मे एक से छ महिने लग सकते है।मूल रुप से,चीकन कसीदा सफेद धागे से,मुसलिन और कैम्बरीक जैसे, मुलायम सफेद सुती कपडे पे किया जाता है।यह कइ बार जाली पे एक तरह की फिता बनाने के लिये किया जाता है ।आज चीकन काम सिर्फ रंगीन धागो से नहि किया जाता लेकिन हरेक किसम के कपडे जैसी के सिल्क,क्रिप,ओर्गेन्डाइ,शीफोन और तुसार.

तकनीकीयाँ:-

टांका लगाने मे शिस्त और पध्धति का उपयोग होता है।रफू टांका खुरखुरा सुती कपडॆ पे किया जाता है कोने के डिजाइन को भरने की खातिर और कपडे की सतह को पूरा करने के लिए,जबकि साटिन टांका सिर्फ नाजुक कपडे जैसे की सिल्क,मुसलिन और लाइनन पे लिया जाता है।चीकन मे कुछ टांके कपडे की गलत बाजु से लिये जाते है, जब कि दूसरे सहि बाजु से लिये जाते है।उसकी शाखा मे यु देखे तो वह निराली है जिसमें जितने हो सके उतने  निश्र्चित हेतु से लिये गये टांको का इस्तमाल वही हेतु के लिये किया जाता है..उनको दूसरो टांको से बदल नहि दिया जाता है।नमूने के तोर पे,जंजीर टांके का इस्तमाल सिर्फ पता,पंखडी, और तना की आखरी बाहरी रेखा को बनाने के लिए होता है।

अलग अलग तकनीक अलग अलग प्रकार के टाके इस्तेमाल करते है।नमूने के तौर पे,खुला काम या जाली काम को करते है उसको उन कसीदाकार नहि करते जो फिलींग का काम करते है-हरेक कामदार अपना अपना काम करता है और उसके बाद कपडॆ को आगे के कसीदाकार को भेजा जाता है।हरेक काम की मजदूरी अलग रुप से निश्र्चित है।

कैसे पहुंचे:-

अलीगढ़ राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली से उत्तर रेलवे के नई दिल्ली कलकत्ता ट्रंक रूट पर 130 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. अलीगढ़ भी नियमित रूप से हर आधे घंटे पर जाने वाली बस सेवा के द्वारा आगरा से जुड़ा है जो अलीगढ से 90 किमी दूर है. आम तौर पर आगरा से बस से और नई दिल्ली से मेल / एक्सप्रेस ट्रेन द्वारा अलीगढ़ पहुँचने में 2 घंटे लगते हैं.








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